उत्तराखंड में आगामी नगर निगम और नगर पालिका चुनाव को लेकर मेयर और अध्यक्ष पद के आरक्षण को लेकर राज्यभर में विवाद और आपत्तियों का अंबार लग गया है। खासकर हरिद्वार जिले में आरक्षण को लेकर ज्यादा नाराजगी देखने को मिल रही है। विभिन्न राजनीतिक दलों, संगठनों और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा उठाए गए सवालों और आपत्तियों के बाद राज्य चुनाव आयोग को लगातार आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। उत्तराखंड के हरिद्वार शहर, जो धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, में मेयर पद के आरक्षण को लेकर विरोध बढ़ता जा रहा है। कुछ लोग इसे भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक मानते हुए इसे चुनौती दे रहे हैं। उनका कहना है कि हरिद्वार के मेयर पद का आरक्षण पिछड़ी जातियों के लिए किया गया है, जबकि यहां की जनसंख्या और राजनीतिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय गलत है।
राज्य चुनाव आयोग के द्वारा घोषित आरक्षण की प्रक्रिया पर सवाल उठाए जा रहे हैं। विरोध करने वाले दलों का कहना है कि यह आरक्षण जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि एकतरफा तरीके से किया गया है। कई स्थानों पर जहां जनसंख्या का आंकड़ा स्पष्ट रूप से नहीं है, वहीं आरक्षण की घोषणा कर दी गई है। इसके कारण स्थानीय लोगों में गुस्सा और असंतोष बढ़ रहा है। आरोप है कि आरक्षण प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है और इसे राजनीतिक फायदे के लिए उपयोग किया जा रहा है। राज्य सरकार और चुनाव आयोग पर यह आरोप भी है कि उन्होंने वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखते हुए आरक्षण को लागू किया है, जिससे स्थानीय समुदायों और संगठनों में असंतोष फैल गया है।
उत्तराखंड में निकाय चुनाव न केवल स्थानीय शासन की दिशा तय करते हैं, बल्कि यह राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह चुनाव सीधे जनता से जुड़े होते हैं और स्थानीय समस्याओं का समाधान देने के लिए उम्मीदवारों को अपनी स्थिति मजबूत करनी होती है। ऐसे में आरक्षण का मसला और ज्यादा संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि यह आम जनता के बीच सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण का कारण बन सकता है।विपक्षी दलों ने राज्य चुनाव आयोग के आरक्षण आदेश की कड़ी आलोचना की है। कांग्रेस, भाजपा के बाद अब आम आदमी पार्टी (आप) ने भी इसे लेकर विरोध जताया है। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि चुनाव आयोग का यह निर्णय स्थानीय आबादी की वास्तविक स्थिति के खिलाफ है, और इससे समाज में और भी तनाव पैदा हो सकता है। आम आदमी पार्टी (आप) के नेताओं का कहना है कि आरक्षण प्रक्रिया में जनसंख्या के आंकड़े, जातिगत समीकरण और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा गया है। उनका यह भी कहना है कि इस तरह के फैसले वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देते हैं और समाज को और ज्यादा विभाजित करते हैं।
हरिद्वार समेत उत्तराखंड के अन्य शहरों और कस्बों में रहने वाले लोग भी इस आरक्षण को लेकर असमंजस में हैं। स्थानीय लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या इस आरक्षण से उनके मुद्दों का समाधान होगा, या फिर यह केवल राजनीति का हिस्सा बनकर रह जाएगा। कुछ नागरिक संगठन यह भी मानते हैं कि आरक्षण के बजाय, स्थानीय मुद्दों जैसे सफाई, पानी, सड़क, और स्वास्थ्य सुविधाओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उनका कहना है कि चुनाव में अगर इन मुद्दों पर काम नहीं किया गया, तो आरक्षण के फैसले से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
राज्य चुनाव आयोग का कहना है कि उन्होंने आरक्षण प्रक्रिया को पूरी तरह से संविधान और चुनाव नियमों के अनुरूप तैयार किया है। आयोग के अनुसार, आरक्षण का उद्देश्य समाज के विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व देना है और यह तय करना कि कौन सी सीट किस वर्ग के लिए आरक्षित रहेगी, एक निर्धारित प्रक्रिया के तहत ही किया गया है। आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि किसी भी उम्मीदवार को आरक्षण के कारण कोई भी अनावश्यक दिक्कत नहीं होनी चाहिए और अगर कोई स्थानीय व्यक्ति या संगठन इसका विरोध करता है, तो उनकी आपत्ति पर विचार किया जाएगा।