मैदान-पहाड़ की जनसंख्या खाई: दक्षिण भारत के पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों की परिसीमन को लेकर गोलबंदी के बाद अब उत्तराखंड में भी यह मुद्दा चर्चा में है, हालांकि परिसीमन आयोग का गठन अभी नहीं हुआ है और पहले जनगणना होनी है, लेकिन राज्य की भौगोलिक और जनसंख्या संबंधी विषमता ने इस मुद्दे को यहां भी प्रासंगिक बना दिया है।उत्तराखंड में नौ पर्वतीय और चार मैदानी जिले हैं। चुनाव आयोग की रिपोर्ट बताती है कि बीते दो दशकों में पर्वतीय जिलों से आबादी तेजी से घटी है, जबकि मैदानी जिलों में जनसंख्या और मतदाताओं की संख्या में तेज वृद्धि हुई है।
2002 में जहां पहाड़ और मैदान के मतदाता आंकड़ों में केवल 5.4% का अंतर था, वहीं 2022 तक यह खाई बढ़कर 21.2% हो गई।मैदानी जिलों में 2002 में 52.7% मतदाता थे, जो 2022 में बढ़कर 60.6% हो गए, दूसरी ओर, पहाड़ी जिलों का वोट शेयर 47.3% से घटकर 39.4% रह गया।राज्य के कई हिस्सों में पलायन एक बड़ी समस्या बन गया है, 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड से पांच लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं, इसके पीछे रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी प्रमुख कारण है।
गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी ‘मेरा वोट-मेरा गांव’ अभियान के तहत पलायन कर चुके लोगों को अपने गांवों में वोट बनवाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वहीं सरकार चारधाम ऑलवेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना और हवाई कनेक्टिविटी जैसी योजनाओं के जरिए पहाड़ों में आजीविका के साधनों को बढ़ावा दे रही है।सामाजिक कार्यकर्ता अनूप नौटियाल का मानना है कि मतदाताओं के आधार पर परिसीमन से पर्वतीय क्षेत्रों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कमजोर होगा, इसलिए क्षेत्रफल आधारित परिसीमन ही एकमात्र व्यावहारिक विकल्प है।हालांकि परिसीमन फिलहाल दूर है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अगर संतुलन नहीं साधा गया तो राज्य की मूल अवधारणा को नुकसान हो सकता है।