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Home » आसमान से आते हैं मेहमान, श्राद्ध में कौवों का महत्व है ख़ास
उत्तराखंड

आसमान से आते हैं मेहमान, श्राद्ध में कौवों का महत्व है ख़ास

The tradition of Shraddha Paksha is considered incomplete without 'crows', crows are rarely seen in Uttarakhand.
Narad PostBy Narad PostOctober 2, 2024Updated:October 2, 2024No Comments3 Mins Read
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श्राद्ध में कौवों का महत्व
श्राद्ध में कौवों का महत्व
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श्राद्ध पक्ष का आज अंतिम दिन हैं। आखिरी दिन भी उन ख़ास मेहमानों का इंतज़ार रहता है जिनकी संख्या उत्तराखंड में बेहद कम है। आज के दिन श्राद्ध का भोजन कराने के लिए लोग आसमान से आने वाले उन ख़ास मेहमानों को बुलाते हैं जिन्हे कौवा कहते हैं। क्योंकि माना जाता है कि  गुजरे लोगों को याद करना और उनका मनपसंद भोजन बनाकर कौवों के सामने परोसने की परंपरा ज़रूरी होती है। मान्यताओं के मुताबिक स्वर्गीय तक यह भोजन कौओं द्वारा पहुंचाया जाता है।श्राद्ध में कौए परलोकी लोगों के वाहक बनते हैं। पर, कौए इन्हीं दिनों में दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ते। श्राद्ध का भोजन लेकर लोग उनके आगमन का लंबा इंतजार करते रहते हैं लेकिन वो नहीं आते। हों तो ही आए न? हैं ही नहीं। जबकि श्राद्ध में भोजन उन्हीं को ध्यान में रख कर तैयार किया जाता है।

जाहिर है जब कौए ही नहीं होंगे, तो श्राद्ध की मान्यताएं भला कैसी पूरी होगी ?

प्राचीन परंपराओं के अनुसार श्राद्धों से कौवों का सीधा संबंध है। श्राद्धों में जो व्यंजन बनते हैं उन्हें पितरों तक कौए ही पहुंचाते हैं। श्राद्ध में लोग अपने गुजरे पितरों को भोजन कराने के लिए घरों की छतों, खेतों, चौक-चौहराहों पर रखते हैं और कौओं के आने का इंतजार करते हैं। श्राद्ध का खाना कौआ खा ले, तो समझा जाता है कि श्राद्ध की आस्था पूरी हुई। कौओं की संख्या लगातार कम होने से उनकी जगह गली-मोहल्ले के आवारा कुत्ते श्राद्ध के भोजन पर झपट्टा मारते देखे जाते हैं। कौए नहीं आते तो लोग मजबूरन इन्हीं को कौवों का प्रतिरूप मान कर मन को समझा लेते हैं। क्योंकि इसके सिवा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं। दूषित पर्यावरण के चलते विलुप्त होती प्रजातियों में कौए भी शामिल हैं। एक वक्त था, जब घरों के आंगन और मुंडेरों पर कौओं की बहुतायत होती थी। उनकी आवाज सुनने को मिलती थीं। दरअसल, कौए हमेशा से अन्य पक्षियों के मुकाबले तुच्छ माने गए हैं। कौए का शरीर औषधि के तौर पर भी प्रयुक्त किया गया है। कौए छोटे-छोटे जीव एवं अनेक प्रकार की गंदगी खाकर भी अपना पेट भर लेते हैं।

श्राद्ध पक्ष में इस दुर्लभ पक्षी की भक्ति और विनम्रता से यथाशक्ति भोजन कराने की बात विष्णु पुराण में कही गई है। तभी कौओं को पितरों का प्रतीक मानकर श्राद्ध पक्ष के सभी दिनों में उन्हें भोजन करवाया जाता है। श्राद्धों में कौओं को खाना और पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है। कौओं के संबंध में एक और दिलचस्त बात प्रचलित है। किसी के आगमन की सूचना भी इनकी चहलकदमी से जोड़ी जाती रही है। एक वक्त वह भी था जब परिवार की महिलाएं शगुन मान कर कौवा को मामा कह कर घर में बुलाया करती थी, तो कभी उसकी बदलती हुई दिशा में कांव-कांव करने को अपशकुन मानते हुए उड़ जा कहके बला टालतीं थीं। इसके अलावा घर की बहुएं कौए के जरिये अपने मायके से किसी के आने का संदेश पाती थीं। कौओं की तरह अब कई और बेजुबान पक्षियों की आबादी घट गई है। पक्षियों के रहने और खाने की सभी जगहें नष्ट कर दिए गए हैं। पेड़ों पर भी इनका निवास होता था, वह भी लगातार काटे जा रहे हैं। यही हालत रही तो आने वाले सालों में इन आसमानी मेहमानों का श्राद्ध के दिन छतों पर मंडराने और पितरों की शांति का इंतज़ार लंबा भी हो सकता है।

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